"मैं हूँ"….
प्रोफेसर मुकुल के व्यक्तित्व को कुछ चंद पंकितयों और शब्दों में दर्शाना नामुमकिन होगा मेरे लिए… अपनापन, सहजता, गंभीरता, हास्य एवं खुले विचारों के अति उत्तम मिश्रण के स्वाभाव वाले व्यक्ति रहे हैं वह… उनके व्यक्तित्व को चंद लाइनों में मोतियों की माला रूपी भावनाओ में भी अगर इस वक़्त अगर पिरो दूँ तो भी वह माला अधूरी रह जायेगी। प्रोफेसर मुकुल ही सिर्फ एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनका नाम इरमा आने से पहले मुझे पता था। और यह उनसे मिलने के बाद समझ आया की उनका नाम ही काफी है।
मुझे याद है २०१७ में जब पापा के चले जाने के बाद घर से आयी थी और प्रोफेसर मुकुल से मिली थी तब उन्होंने बड़ी सहजता से कहा था, “आपको अपने प्रोफेशनल और पढ़ाई लिखाई में जहाँ भी जरुरत हो उसके लिए मैं हूँ हमेशा… पर आपको कभी भी अपने निजी ज़िन्दगी में कभी भी और कोई भी आवश्यकता हो तो मैं हमेशा हूँ. मुझे बताइयेगा. मैं हूँ"
मैं चुपचाप उनकी बातें सुन रही थी. फिर एकदम उन्होंने मुझसे उतनी ही आत्मीयता के साथ पुछा. आपके पास पैसे तो है न…” और मैं अपनी डबडबायी आँखों से उनकी तरफ देखा और भरे गले से हाँ कह दिया... उनका “मैं हूँ” ...कह देना मात्र ही मेरे लिए सब कुछ था.
सर को किताबें रेखांकित करके पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं था. उनकी किताबें बिल्कुल नयी लगती थी. किताबों में निशान लगाना उन्हें बेहद परेशान करता था. Rural society and Polity, Development, Theory and Practices and Philosophy of Social Science जैसे विषय के अलावा मैंने सर से एक और कोर्स पढ़ा था "Policy and Society”. यह विषय सर ने अपनी बिगड़ी तबियत में भी मुझसे उतनी ही शिद्दत से पढ़ाया जैसे उनके सारे विषय होते थे. मेरे सारे बेढंगे ख्याल और सवालों को उन्होंने हमेशा इतनी सहजता से एक दिशा और आकार दिया. तब सर ने मुझे एक किताब पढ़ कर उसकी समीक्षा करने को कहा था. उस किताब का नाम “Seeing like a state” था. कहा की लाइब्रेरी में होगी देख लीजिये...और फिर अगले दिन कॉल किया और पूछा, “वह किताब आपको मिली क्या?” मैंने कहा, “हाँ”. “तो ज़रा वह किताब लेकर आइये”. मैं फ़ौरन गयी. उन्होंने ४-५ मिनट वह किताब देखी और कहा “मैं कल से सोच रहा था… मैंने आपको कह तो दिया है ये किताब पढ़ने को, पर इस किताब को पढ़ना इतना आसान भी नहीं होगा. अगर आपको ये मुश्किल लग रहा है तो आप कोई और किताब भी चयन कर सकती हैं”.
मैं यह सुन कर आश्चर्यचकित थी की इतनी सी बात इनको कल से ध्यान में है जबकि ये खुद भी अपनी निजी ज़िन्दगी में इतना संघर्ष कर रहे हैं. मैंने उनसे हंस कर पूछा की जब ये किताब आसान नहीं है पढ़ना तो आपने मुझसे क्यों कहा पढ़ने को. तब उन्होंने कहा “हमेशा ‘सेमिनल वर्क’ ही पढ़िए… ये आपको अलग इंसान बनाएगा. जब आप किसी फोरम पर बात करेंगी तो आपकी बातों में वजन होगा और आपकी बातों को हमेशा तवज़्ज़ो मिलेगा”. मैंने वह किताब उठायी और कहा, “मैं यही किताब पढूंगी. जहाँ समझ नहीं आएगी आपसे पूछने आ जाउंगी”.
मुकुल सर दृढ निश्चय वाले व्यक्ति थे. हमेशा पढ़ने और पढ़ाने को तत्पर. इसमें कोई संदेह नहीं की वह बहुत कुछ अधूरा छोड़ गए हैं. शायद उनसे सीखा हुआ हम सब लोग मिल कर थोड़ा कुछ पूरा करने की कोशिश कर सकें. ईश्वर की बहुत मेहरबानी रहती है और हमारे कुछ अच्छे कर्म होते हैं तब जाकर लाखों हज़ारों लोगों में हमें प्रोफेसर मुकुल जैसे व्यक्ति से मिलने का मौका मिलता है. और अगर आप और खुशकिस्मत होंगे तब जाकर आप ऐसे व्यक्तित्व को जान और समझ पातें हैं. प्रोफेसर मुकुल के विचार, सहजता, निष्पक्ष स्वाभाव और पढ़ाने की शैली न जाने कितने लोगों पर कभी न मिटने वाला छाप छोड़ गयी है. मेरे जैसे उनके बहुत से विद्यार्थी थोड़ा इंसान बन पाए होंगे. उम्मीद करती हूँ उनका सिखाया हुआ हमेशा आगे लेकर बढ़ पाऊँ. और कभी मुझे भी मौका मिला क्लासरूम की दूसरी तरफ जाकर पढ़ाने का तो मेरे हर व्यवहार, आदर्श, और पढ़ाने की शैली में प्रोफेसर मुकुल की झलक हमेशा होगी.
ये क्लासरूम शायद अब ऐसे ही खाली रह जायेगा. क्लासरूम की सीढियाँ उतरते वक़्त यूँ लगा की अब इस जगह पर उस शख़्स को कभी नहीं देख पाऊँगी. कुछ पल अकेले बैठ कर वह सब वापस महसूस करने की कोशिश कर रही थी. फिर लगा. ये क्लासरूम भले ही खाली दिख रहा हो, पर प्रोफेसर मुकुल की बातें, उनका व्यक्तित्व, उनका प्यार, उनकी हंसी हमेशा होंगी उनके अपने लोगों में... आपने जैसे कहा था की "मैं हूँ" ..तो “आप हैं और आप हमेशा होंगे” हम सब में. और आपकी सारी इच्छाएं भी पूरी होंगी… हम सब में..
दीपा गुप्ता